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वन महोत्सव के चलते गढ़मुक्तेश्वर क्षेत्राधिकारी आशुतोष शिवम ने किया वृक्षारोपण

By:Robin Sharma

हापुड़। जनपद के थाना बहादुरगढ़ में गढ़मुक्तेश्वर क्षेत्राधिकारी आशुतोष शिवम ने सुरक्षा रोपण कर वन महोत्सव के विषय में अवगत कराया। साथ उन्होंने यह भी बताया कि वृक्षों के होने से हमें क्या फायदे है क्या नुकसान। उन्होंने बताया कि वन जीवन है। इसांन को यदि इस धरती पर जीवित रहना है तो उसे सांस लेने की जरुरत है यदि सांस लेने में ऑक्सीजन नहीं होगी तो हम जीवित भी नहीं होंगे। जिस तरह से रहना, खाना, पीना, सोना जरुरी है वैसे ही सांस लेना भी अति आवश्यक है। सांस लेने का एकमात्र जरिया है वो है वृक्ष। यदि वृक्ष नहीं होगें तो हम ताजा सांस नहीं ले सकते, हमें जरुरी तत्वों की प्राप्ति नहीं होगी। देखा जाए तो जिंदगी का पर्याय ही वृक्ष हैं। इन्हीं वृक्षों को बचाए रखने के लिए भारत में प्रतिवर्ष जुलाई माह के पहले सप्ताह को वन महोत्सव के रुप में मनाया जाता है। पूरे 1 सप्ताह तक चलने वाले इस महोत्सव का उद्देश्य मनुष्यों को वृक्षों के प्रति जागरुक करना है, उनकी महत्वता बताना है।

सन् 1960 के दशक में कन्हैयालाल मणिकलाल मुंशी ने इस महोत्सव का आगाज किया था। उनसे पहले 1947 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु, राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद और मौलाना अब्दुल कलाम आजाद के प्रयासों से वन महोत्सव की शुरुआत की गई थी किन्तु यह सफल नहीं हुआ। जिसके बाद कन्हैयालाल मणिकलाल मुंशी ने इसका फिर से आगाज किया। तब से लेकर आज तक प्रतिवर्ष वृक्षों की महत्वता को ध्यान में रखते हुए वृक्ष महोत्सव जुलाई महीने में मनाया जाता है क्योंकिं जुलाई-अगस्त का महीना वर्षा ऋतु का होता है और पेड़-पौधों के उगने के लिए यह नमी का मौसम अच्छा माना जाता है। इस मौसम में पेड़-पौधे जल्दी उगते हैं।

आपको बता दें कि एक समय था जब सुबह की शुरुआत पक्षियों की चहचाहट के साथ होती थी। घर के आंगन में गौरेया दाना चुगने आया करती आती । लेकिन आज उन आवाजों की जगह ट्रैफिक के शोर-शराबों ने ले ली है। पेड़ों की कटाई के कारण बड़ी संख्या में पशु-पक्षी, कीट-पतंगे बेघर हो गए हैं। कुछ पशु-पक्षियों का तो नामों निशान भी खत्म हो गया है। पेड़ की ठंडी हवाओं की जगह आज गाड़ियों से निकलते धुओं ने ले ली है। पेड़ों की छांव की जगह फैक्ट्रियों के कूड़े-करकट ने ले ली है। आज हम स्वच्छ हवा में सांस लेने तक को तरस गए हैं। भारत में लंबे समय से बाढ़, सूखा, गर्मी की लहरें, चक्रवात, और अन्य प्राकृतिक आपदाओं ने अपने पैर पसारे हुए हैं। कभी तेज गर्मी से लोग तिलमिलाने लगते हैं तो कभी अंधाधुंध बारिश से, कहीं सूखा पड़ रहा है तो कई ठंड का प्रकोप बढ़ रहा है। नदी, नाले सूखते जा रहें हैं। आए दिन प्राकृतिक आपदाएं अपनी जड़े जमा रही है। हाल ही में उतराखंड के केदारनाथ में आई बाढ़ हो जिसमें ना जाने कितने लोग बली चढ़ गए या फिर दिन पर दिन गर्मी की मार से तपते लोग हों इन सभी विपदाओं के पीछे पेड़ों की कटाई है। हम माने या ना माने लेकिन पेड़ों की कटाई से नुकसान हमें ही हो रहा है। वन नीति, 1988 के अनुसार भूमि के कुल क्षेत्रफल का 33 प्रतिशत भाग वन-आच्छादित होना चाहिए। तभी प्राकृतिक संतुलन रह सकेगा, किंतु सन 2001 के रिमोट सेंसिंग द्वारा एकत्रित किए गए आकड़ों के अनुसार देश का कुल क्षेत्रफल 32,87,263 वर्ग कि.मी. है। इनमें वन भाग 6,75,538 वर्ग कि.मी. है, जिससे वन आवरण मात्र 20 में प्रतिशत ही होता है और ये आंकड़े भी पुराने हैं। अब तो इनकी संख्या और कम गई है।

आपको बता दें कि जागरूकता अभियान के जरिए बच्चों द्वारा भी कई ऐसे कार्यक्रम किए जाते है जिनमें वृक्षों के संरक्षण की बात कही गई हो। आज हम सभी को पेड़ों के प्रति जागरुक होने की आवश्यकता है। यह पेड़ हमसे कुछ लेते नहीं है आमतौर पर, स्थानीय पेड़ लगाए जाते हैं क्योंकि वे आसानी से स्थानीय परिस्थितियों में अनुकूलित होते हैं, पर्यावरण प्रणालियों में एकीकृत होते हैं और ज्यादा समय तक जीवित रहने का दम रखते हैं। इसके अलावा, ऐसे पेड़ स्थानीय पक्षियों, कीड़ों और जानवरों को भी समर्थन देने में सहायक होते हैं। राज्य सरकारें और नागरिक निकाय स्कूलों, कॉलेजों और अकादमिक संस्थानों, गैर सरकारी संगठनों के जरिए आज पेड़ों को एक बार फिर से बचाने की कोशिश की जा रही है। ऐसे में हमारा भी यह कर्तव्य बनता है कि हम भी वृक्षों को बचाने और लगाने के लिए अपनी-अपनी भूमिका अदा करें।

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